Maharashtra Politics | महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का गुट ही ‘असली शिवसेना’ है। चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे को ‘शिवसेना’ का नाम और सिंबल दिया है। चुनाव आयोग ने शुक्रवार को 78 पन्नों के फैसले में एकनाथ शिंदे गुट को पार्टी का नाम ‘शिवसेना’ और चुनाव चिन्ह ‘धनुष-तीर’ दिया। आयोग ने यह भी बताया कि शिंदे गुट को पिछले साल अक्टूबर में जिस पार्टी का नाम ‘बाला साहेबची शिवसेना’ और ‘दो तलवार और एक ढाल’ चुनाव चिह्न दिया गया था, उसे अब फ्रीज कर दिया जाएगा।
हालांकि, उद्धव ठाकरे ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। लेकिन एक तरफ चुनाव आयोग का यह फैसला उद्धव ठाकरे और उनके समर्थकों के लिए बड़ा झटका है तो वहीं दूसरी तरफ शिंदे गुट की बड़ी जीत है। उद्धव ठाकरे ने चुनाव आयोग के इस फैसले को ‘लोकतंत्र की हत्या’ बताया है, वहीं, मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने इसे ‘सच्चाई की जीत’ बताया है।
पिछले साल जून में एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे के खिलाफ बगावत कर दी थी। शिंदे ने शिवसेना के 55 में से 40 विधायकों को साथ लिया और बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई. इस सरकार में एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बने और बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस डिप्टी सीएम. महाराष्ट्र में इस राजनीतिक बदलाव के बाद से ही उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे के बीच ‘असली शिवसेना’ की जंग चल रही थी.
शिंदे ही ‘असली’ शिवसेना क्यों?
चुनाव आयोग ने अपने फैसले में बताया है कि शिंदे गुट को ‘असली शिवसेना’ क्यों माना गया है? चुनाव आयोग ने कहा कि एकनाथ शिंदे को 55 में से 40 विधायकों और 18 में से 13 लोकसभा सांसदों का समर्थन हासिल है.
चुनाव आयोग ने अपने आदेश में कहा, शिंदे के समर्थन वाले 40 विधायकों को 2019 के विधानसभा चुनाव में 36.57 लाख यानी 76 फीसदी वोट मिले थे. जबकि, ठाकरे गुट वाले 15 विधायकों को महज 11.25 यानी करीब 23.5 फीसदी वोट मिले.
आयोग के मुताबिक, 2019 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना को कुल 90.49 लाख वोट मिले थे. इसमें हारे हुए प्रत्याशियों को मिले वोट भी शामिल हैं। इनमें से करीब 40 विधायक शिंदे गुट के विधायकों को और 12 फीसदी वोट ठाकरे गुट के विधायकों को मिले।
इतना ही नहीं, शिंदे गुट के समर्थन वाले 13 लोकसभा सांसदों को 2019 के चुनाव में 1.02 करोड़ यानी करीब 73 फीसदी वोट मिले थे. वहीं, उद्धव ठाकरे के समर्थन में आए पांच लोकसभा सांसदों को 27.56 लाख यानी 27 फीसदी वोट मिले।
ठाकरे के हाथ से कैसे निकली शिवसेना?
- उद्धव ठाकरे ने चुनाव आयोग के इस फैसले को ‘लोकतंत्र के लिए खतरनाक’ बताया है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि चुनाव आयोग केंद्र सरकार का ‘गुलाम’ बन गया है।
- चुनाव आयोग ने कहा कि यह फैसला ‘पार्टी संविधान की कसौटी’ और ‘बहुमत की कसौटी’ के आधार पर लिया गया है.
- आयोग के मुताबिक, ठाकरे गुट ने पार्टी के नाम और चुनाव चिह्न पर दावा पेश करने के लिए 2018 के पार्टी संविधान का हवाला दिया था. लेकिन पार्टी ने 2018 में किए गए संशोधन के बारे में चुनाव आयोग को सूचित नहीं किया।
ठाकरे को ‘नुकसान’, शिंदे को बड़ा ‘फायदा’
- चुनाव आयोग के इस फैसले से एक बात तो साफ हो गई है कि अब शिवसेना पार्टी पूरी तरह से एकनाथ शिंदे की हो गई है।
- यह फैसला ठाकरे परिवार के लिए एक ‘झटका’ है क्योंकि यह पहली बार है जब ठाकरे परिवार का ‘नियंत्रण’ शिवसेना से हटा है. शिवसेना की स्थापना 1966 में बालासाहेब ठाकरे ने की थी और तब से पार्टी को ठाकरे परिवार द्वारा चलाया जा रहा था।
- दूसरी ओर, एकनाथ शिंदे के लिए यह बड़ी ‘जीत’ है, क्योंकि अब पार्टी पर उनका अधिकार हो गया है। पार्टी से जुड़े सभी फैसले एकनाथ शिंदे लेंगे। कुल मिलाकर 54 साल तक जो पार्टी ठाकरे परिवार के हाथ में थी, वो अब शिंदे के हाथ में आ गई है.
- इतना ही नहीं अब ठाकरे गुट के विधायकों और सांसदों पर एक नया खतरा खड़ा हो गया है। यानी अब उनके खिलाफ ‘अयोग्यता’ की कार्रवाई शुरू की जा सकती है। यह मामला फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है।
ठाकरे के साथ भी वही हुआ, शिवपाल-चिराग के साथ क्या हुआ?
- यह पहला मौका नहीं है, जब किसी राजनीतिक दल में दावेदारी को लेकर दो धड़ों के बीच जंग छिड़ी हो। इससे पहले समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव बनाम शिवपाल यादव, आंध्र प्रदेश में एनटीआर बनाम चंद्रबाबू नायडू, अपना दल में अनुप्रिया पटेल बनाम कृष्णा पटेल के बीच मुकाबला हुआ था. पिछले साल लोक जनशक्ति पार्टी में चिराग पासवान बनाम पशुपति कुमार पारस के बीच फूट पड़ गई थी।
- दो साल पहले जब लोक जनशक्ति पार्टी में जंग छिड़ी थी तो पशुपति कुमार पारस ने खुद को पार्टी का अध्यक्ष घोषित कर दिया था. बाद में मामला लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के पास गया, तब उन्होंने पशुपति कुमार पारस को लोक जनशक्ति पार्टी के संसदीय दल का नेता चुना। लोकसभा में लोजपा के 6 सांसद हैं, जिनमें से 5 सांसद पशुपति पारस के साथ गए। बाद में चिराग पासवान ने भी इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, लेकिन याचिका को कोर्ट ने खारिज कर दिया था।
- इससे पहले अपना दल में बगावत हुई थी। 2009 में सोनेलाल की मृत्यु के बाद, उनकी पत्नी कृष्णा पटेल ने पार्टी की कमान संभाली। 2014 में मिर्जापुर से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल ने बगावत कर दी. बाद में अनुप्रिया और उनके पति आशीष सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया था। दिसंबर 2016 में, अनुप्रिया पटेल ने अपना दल (सोनेलाल) नाम से एक नई पार्टी बनाई।
- 2017 में समाजवादी पार्टी में फूट पड़ गई थी। फिर अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह को हटा दिया और खुद अध्यक्ष बन गए। बाद में शिवपाल यादव भी इस जंग में कूद पड़े। अंत में मामला चुनाव आयोग तक पहुंचा और चूंकि अधिकांश निर्वाचित प्रतिनिधि अखिलेश के साथ थे, इसलिए आयोग ने उन्हें चुनाव चिह्न दे दिया। बाद में शिवपाल ने अपनी पार्टी बना ली।
- शिवसेना की स्थापना बालासाहेब ठाकरे ने 1966 में की थी।
शिवसेना मामले में आगे क्या?
- आयोग ने पिछले साल अक्टूबर में ठाकरे गुट को पार्टी का नाम ‘शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) और प्रतीक ‘जलती मशाल’ दिया था। आयोग ने कहा है कि फिलहाल ठाकरे गुट एक ही नाम और चिन्ह का इस्तेमाल करेगा।
- उद्धव ठाकरे ने चुनाव आयोग के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। उद्धव ठाकरे का कहना है कि अब उन्हें सिर्फ सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद है.
- हालांकि, कानून कहता है कि केवल चुनाव आयोग ही राजनीतिक दलों में विवादों का निपटारा कर सकता है। दरअसल, 1967 में जब एसपी सेन वर्मा मुख्य चुनाव आयुक्त बने तो उन्होंने एक चुनाव चिह्न आदेश बनाया, जिसे ‘प्रतीक आदेश 1968’ कहा जाता है।
- इस आदेश के पैरा 15 में लिखा है कि किसी राजनीतिक दल में विवाद या विलय की स्थिति में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ चुनाव आयोग के पास है। 1971 में, सुप्रीम कोर्ट ने सादिक अली बनाम चुनाव आयोग के मामले में अपना निर्णय देते हुए पैरा 15 की वैधता को बरकरार रखा।
- राजनीतिक दल का असली मालिक कौन होगा? यह मुख्य रूप से तीन बातों पर तय होता है। पहला- किस गुट के निर्वाचित प्रतिनिधि अधिक हैं? दूसरा- पदाधिकारी किस तरफ हैं? और तीसरा – संपत्तियां किस तरफ हैं?
- लेकिन, किस गुट को पार्टी माना जाएगा? यह निर्वाचित प्रतिनिधियों के बहुमत के आधार पर तय किया जाता है। मसलन जिस गुट के निर्वाचित सांसद-विधायक ज्यादा होंगे उसे पार्टी माना जाएगा।