मोदी से लड़ना कोई बच्चों का खेल नहीं है, कांग्रेस और INDIA गठबंधन को समझना चाहिए

कांग्रेस और INDIA

Politics | तीन राज्यों में हार के बाद कांग्रेस का क्या होगा? क्या यह पहले की तरह सिकुड़ जायेगा? क्या उसका मनोबल टूट जायेगा? क्या भारत गठबंधन में उसकी भूमिका कम हो जायेगी? चुनाव से पहले कहा जा रहा था कि कांग्रेस तीन राज्यों में आसानी से जीत हासिल कर लेगी।

मध्य प्रदेश में शिवराज सरकार के खिलाफ जबरदस्त गुस्सा था, लोग बदलाव की बात कर रहे थे। वहां सभी को लग रहा था कि कांग्रेस प्रचंड बहुमत की ओर बढ़ रही है; लेकिन हुआ ठीक इसके उलट। कांग्रेस का सबसे बड़ा किला छत्तीसगढ़ भी ढह गया और भारतीय राजनीति के बड़े सितारे माने जाने वाले भूपेश बघेल भी अगल बगल देखते नजर आ रहे थे। अशोक गहलोत ने जान बुझकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी। अगर उन्होंने सचिन को साथ लिया होता तो इस वक्त उनकी सरकार होती। तीनों राज्यों में हार कांग्रेस के माथे पर एक नया बदनुमा दाग है।

लेकिन तेलंगाना में कांग्रेस की जीत उम्मीद की किरण है। वहां कांग्रेस ने बेहद कद्दावर नेता केसीआर और उनकी पार्टी को हरा दिया है। बिल्कुल नये नेता पर दांव लगाया और वह दांव सफल रहा। क्या तेलंगाना कांग्रेस की भविष्य की राजनीति की रूपरेखा तैयार कर सकता है? क्या तेलंगाना पार्टी को कोई सबक सिखा सकता है?

हिंदी पट्टी की हार से एक बात तो साफ़ है। इस क्षेत्र में बीजेपी काफी मजबूत है और उसे हराने के लिए कांग्रेस को कुछ नया करना होगा और साथ ही यह भी समझना होगा कि आपस में लड़ने से बीजेपी को ही फायदा होगा।

दरअसल, कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी उसके इंदिरा गांधी के दौर के नेता हैं। जो दरबारी राजनीति की उपज है और नेहरू गांधी की चापलूसी करके राजनीति के शीर्ष पर पहुंचे हैं। ये नेता दरबारी राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। वह हमेशा दरबार में रहते हैं और शह-मात का खेल खेलते रहते हैं। कायदे से 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाना चाहिए। कांग्रेस नेतृत्व ने सचिन के मनसूबों और इरादों पर पानी फेरकर गहलोत को सीएम बनाया, जो कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती थी। और 2018 की जीत 2023 में कांग्रेस की हार का कारण बनी रही।

सचिन पायलट इस अपमान को कभी भूल नहीं पाए और न ही यह समझ पाए कि एक हार से जिंदगी खत्म नहीं होती। सबसे पहले तो सचिन को गहलोत के नाम पर तैयार नहीं होना चाहिए और अगर तैयार हो जाएं तो पूरे पांच साल तक गहलोत के साथ रहना चाहिए। बीच में बगावत का कोई मतलब नहीं है, गहलोत को सचिन को भी साथ लेना चाहिए, जो उन्होंने नहीं किया. अतः हारना निश्चित था।

गहलोत को विश्वास हो गया कि वे अपनी कल्याणकारी नीतियों और प्रचार-प्रसार के दम पर दोबारा सरकार बना सकते हैं।जो न तो होना था और न ही हुआ। कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा सबक यह है कि अगर वह समय रहते बड़े और कड़े फैसले नहीं ले सकी तो पार्टी के लिए आगे की राह संकरी हो जाएगी।

नेहरू गांधी परिवार को समझना चाहिए कि राजनीति में किसी का सगा नहीं होता। दरबारी तब तक नेहरू-गांधी परिवार के करीब थे जब तक उन्हें लगा कि वे उन्हें जीत दिला सकते हैं और जैसे ही उन्हें लगा कि नेहरू-गांधी परिवार कमजोर हो गया है और उन्हें जीत नहीं दिला सकता, दरबारियों ने गिरगिट की तरह रंग बदलना शुरू कर दिया और हालात यहां तक आ गए कि चाहे गहलोत हों या कमलनाथ, दोनों ने चुनाव में नेहरू-गांधी परिवार की बात नहीं मानी।

उनके फैसलों को मानने से इनकार कर दिया। यह बात पूरी पार्टी जानती है और इससे न सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार कमजोर हुआ है बल्कि दूसरे राज्यों में उनकी छवि भी खराब हुई है। ऐसे में हार के बाद कांग्रेस को कड़ा दिल अपनाते हुए दरबारी नेताओं को हार के लिए जिम्मेदार ठहराना चाहिए और नए नेतृत्व को आगे लाना चाहिए ताकि पूरी पार्टी में यह संदेश जाए कि दरबारियों के दिन लद गए हैं।

अगर रेवंत रेड्डी चुनाव जीत सकते हैं तो कमल नाथ और अशोक गहलोत की क्या जरूरत है? पार्टी को हर राज्य में रेवंत रेड्डी जैसे नेताओं की जरूरत है। यानी जो लोग मोदी राज की राजनीति को समझते हैं, वे सबको साथ लेकर चल सकते हैं और मोदी की तरह 24 घंटे आक्रामक राजनीति कर सकते हैं। पार्टी को कमल नाथ जैसे नेताओं की जरूरत नहीं है जो कार्यकर्ताओं का सम्मान नहीं करते, आलाकमान की बात नहीं सुनते और केवल अपने हितों की पूर्ति में लगे रहते हैं। और मेहनत नहीं कर पाते।

ये वो नेता हैं जो आज भी इंदिरा युग में जी रहे हैं, जब कांग्रेस के पास कोई चुनौती नहीं थी और वो आसानी से जीत जाते थे। उन्हें ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती थी और इंदिरा के नाम पर बड़े-बड़े पद हथिया लेते थे। आज स्थिति बदल गयी है. पार्टी बहुत कमजोर हो गयी है। मोदी जैसा नेता एक ऐसा प्रधानमंत्री है जो न सिर्फ 24 घंटे कड़ी मेहनत करता है बल्कि दंडमुक्ति समेत हर तरह के हथकंडे अपनाने से भी कतराता नहीं। ये दरबारी नेता आरामतलबी के शिकार हैं। मेहनत करना उनके बस की बात नहीं है। ऐसे नए जमाने के लोग जिनमें जीतने का जज्बा है और बीजेपी की तरह हर हथकंडा अपनाने से नहीं कतराते। अगर कांग्रेस ऐसा कर सकी तो 2024 की लड़ाई मजबूती से लड़ सकेगी अन्यथा कोई उम्मीद नहीं है।

इस चुनाव में कांग्रेस को एक बात जो सांत्वना दे सकती है वो ये कि जिन तीन राज्यों में कांग्रेस हारी है वहां उसके वोट 40 फीसदी से ज्यादा हैं। यानी हार के बाद भी जनता को उन पर भरोसा है, वे बीजेपी और मोदी की नीतियों से सहमत नहीं हैं, वे हिंदुत्व को देश के लिए अच्छा नहीं मानते हैं। यह वोटर आज भी कांग्रेस की ओर आशा भरी नजरों से देख रहा है।

सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक, बीजेपी के तमाम दावों के बावजूद दलित और आदिवासी मतदाताओं का रुझान कांग्रेस की तरफ ज्यादा है। अल्पसंख्यक वर्ग कांग्रेस पर मजबूती से अपना भरोसा जता रहा है। ऊंची जातियों और ओबीसी का एक वर्ग बीजेपी के साथ है। शिक्षित वर्ग का एक बड़ा वर्ग भी बीजेपी को वोट देता है। यानी गरीबों, मजदूरों और कमजोर किसानों को बीजेपी से ज्यादा उम्मीद नहीं है। वह कांग्रेस में अपना भविष्य देख रहे हैं। ऊंची जातियां हिंदुत्व के प्रभाव में आकर बीजेपी को वोट दे रही हैं लेकिन गरीब महंगाई और बेरोजगारी से बुरी तरह परेशान हैं। वह बदलाव चाहता है।

इस बड़े वर्ग को एकजुट रखने के अलावा अगर कांग्रेस दो से तीन फीसदी नए वोटरों को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेती है तो बीजेपी को उत्तर भारत में भी लोकसभा सीटों के नुकसान का खतरा झेलना पड़ सकता है। मोदी इस बात से वाकिफ हैं, इसीलिए वह लगातार कल्याणकारी योजनाओं के जरिए गरीबों और आदिवासियों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। मुफ्त राशन योजना को अगले पांच साल तक बढ़ाना उस दिशा में एक बड़ा कदम है। कांग्रेस को इसका समाधान ढूंढना होगा।

तो फिर अगर कांग्रेस अभी से कमर कस ले और कर्नाटक और तेलंगाना में बीजेपी को हराने की रणनीति बनाकर उतरे तो वह केंद्र में भी बीजेपी को बहुमत पाने से रोक सकती है। 2019 के लोकसभा चुनाव में कर्नाटक में बीजेपी को 28 में से 25 सीटें मिलीं। अगर वह बीजेपी की सीटें आधी करने में कामयाब रहे तो यह बीजेपी के लिए बड़ा झटका होगा। बीजेपी ने 2019 में तेलंगाना की 17 में से 4 सीटें जीती थीं। बीजेपी के लिए ये सीटें कम भी हो सकती हैं, बशर्ते वह कोशिश करे। वह ऐसा कर सकती है क्योंकि वहां उसकी अपनी सरकार है। अकेले इन दोनों राज्यों में जहां बीजेपी 2023 में विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार चुकी है और उसका संगठन भी मजबूत नहीं है और बीजेपी कई गुटों में बंटी हुई है तो बीजेपी को खासा नुकसान हो सकता है।

ऐसा तभी होगा जब वह अपने भारत गठबंधन के सहयोगियों को साथ लेकर चलेंगे, सभी एक सुर में बोलेंगे और देश के सामने मोदी सरकार की कमजोरियों को उजागर करेंगे और देश को क्या विकल्प दे रहे हैं इसका ब्लूप्रिंट रखेंगे। देश को बताएं कि वह देश को कैसे आगे ले जाएंगे और किस तरह की सरकार चलाएंगे। ये लिखना बेहद आसान है, करना उतना ही मुश्किल है। ऐसा हो सकता है बशर्ते कांग्रेस और INDIA गठबंधन के लोग गुड्डे गुड़िया का खेल खेलना बंद करें, रोना बंद करें और गंभीर राजनीति करें। मोदी से लड़ना बच्चों का खेल नहीं, बड़े खतरे हैं। लेकिन अगर युद्ध में उतरना है तो आग के दरिया में डूबकर जाना होगा।