राजनीती | लोकसभा चुनाव करीब होने के बावजूद एकता या गठबंधन की कोशिशों का ‘सफल’ न हो पाना इस समय विपक्ष की सबसे बड़ी समस्या बताई जा रही है। हालाँकि, ईमानदारी से कहें तो इसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि पिछले कुछ वर्षों में नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने आक्रामक हिंदुत्व या बहुसंख्यकवाद के साथ समानता, बंधुत्व और धर्मनिरपेक्षता जैसे उदार संवैधानिक मूल्यों पर हमला करके देश के राजनीतिक विमर्श को पुरी तरह से बदल दिया है।
मोदी का आक्रामक हिंदुत्व हो या बहुसंख्यवाद इसके खिलाफ लढने का जज्बा खो चुकी है। इसका दूसरा मतलब यह है कि बौखलाया विपक्ष इन मूल्यों के बिना जीत का भरोसा खो चुका है। साथ ही वह आत्मविश्वास भी, जिसके बिना वह बहुसंख्यकवाद को खुली चुनौती देकर यह आत्मविश्वास दोबारा हासिल कर सकता है। आत्मविश्वास की इस कमी ने उसे डरा दिया है और उसके मन में इतने सारे वहम पैदा कर दिए हैं, कि वह इस संभावना का भी सामना नहीं कर पा रहा है कि इस डर के पीछे उसकी जीत भी छिपी हो सकती है।
नतीजा यह है कि वह लगातार खयाली पुलाव बगार रहे हैं और धर्मनिरपेक्षता आदि की वकालत कर रहे हैं। कहना चाहिए, वह इसका भ्रम पैदा कर रहे हैं। उतना ही यह कोशिश कर रहे हैं कि बहुसंख्यक ‘नाराज़’ न हों, मानो बहुसंख्यक हमेशा बहुसंख्यकवाद के समर्थक और अपने विरुद्ध कुछ भी सुनना स्वीकार नहीं करेंगे।
इसके अलावा, बहुसंख्यकों की मानसिकता को बदलने में शामिल जोखिमों का डर उन्हें उस जगह ले गया है, जहां उनके सबसे बुरे दिनों में भी, भाजपा उन पर अल्पसंख्यकों की भलाई के लिए आरोप लगाती रहती है और वह खुलकर बोलने में असमर्थ हैं। इसके ‘बहुसंख्यक तुष्टीकरण’ के खिलाफ उनका मुंह एकदम बंद है। इसके विपरीत, मोदी सरकार की लापरवाही और वादाखिलाफी के कारण वह इस मोर्चे पर अपने खिलाफ हासिल की गई सारी बढ़त गंवा देती है।
वामपंथ को छोड़ दें तो विपक्ष में एक भी ऐसी पार्टी नहीं है जो बुनियादी तौर पर घोर बहुसंख्यकवाद का विरोध करती हो। क्योंकि यह प्रतिगामी, पुनरुत्थानवादी और असंवैधानिक है और चुनावों में हार का जोखिम उठाते हुए लंबे समय तक इससे लड़ने के लिए तैयार है।
उसे अभी भी ‘चुनाव से चुनाव तक’ सोचने की आदत पड़ चुकी है, जबकि बीजेपी हमेशा चुनावी मोड में रहने लगी है और विपक्ष द्वारा दिल-दिमाग में तमाम गलतफहमियां भरकर उन्हें सत्ता से बाहर करने लगातार कोशिश की जा रही है, आधी-अधूरी कोशिशों को नजरअंदाज कर रही है।
निराशा में वह बीच का रास्ता ढूंढने लगता है, लेकिन वह उसे रास्ता भी नहीं निकालने देती। अफसोस की बात है कि उन्हें अब भी यह समझ नहीं आ रहा है कि बहुसंख्यकों को अतार्किकता की ओर ले जाने की भाजपा की कोशिशों से निपटने का एकमात्र तरीका उनकी अंतरात्मा को जगाकर उन्हें लोकतांत्रिक बनाने के प्रयास हैं।
यह सच है कि ऐसे प्रयासों में कई जोखिम हैं, लेकिन विपक्ष द्वारा इन्हें उठाए जाने का डर ही बीजेपी को ‘महाबली’ बनाए रखता है। विपक्ष के इस डर को सबसे पहले उस बात से पहचाना जा सकता है जब पीवी नरसिम्हा राव ने प्रधानमंत्री रहते हुए कहा था कि हम बीजेपी से तो लड़ सकते हैं, लेकिन भगवान राम से नहीं लड़ सकते। कई हलकों में यह मुद्दा अब ‘न बीजेपी से लड़ सकते हैं, न राम से’ तक पहुंच गया है।
लेकिन विडंबना यह है कि न तो तब किसी ने राव से पूछा, न ही विपक्ष इस सवाल का जवाब देने के लिए खुद को तैयार कर पाया है कि अगर बीजेपी बार-बार राम को आगे करने की होड़ में लग जाए तो क्या होगा? नतीजा यह हुआ कि भाजपा ने भगवान राम को बहुसंख्यकवाद का सबसे बड़ा प्रतीक बना लिया है और वह जब चाहे अपने विरोध को राम (और बहुसंख्यक) के विरोध में बदल देती है।
फिर ‘बेचारा’ विपक्ष अपने उस ‘अपराध’ को सही ठहराने में लगा रहता है जो उसने किया ही नहीं है। यह भी उनकी ‘मजबूरी’ है कि बहुसंख्यकों को ‘तुष्ट’ करने के लिए उन्हें राम मंदिर निर्माण और सरकार की प्रतिष्ठा को लेकर भी ‘सशर्त’ रवैया अपनाना पड़ रहा है। ताकि उन पर राम विरोध का आरोप न लगे।
इसे ऐसे समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री दावा कर रहे हैं कि उन्होंने अयोध्या में भगवान राम के लिए 500 साल पुराना इंतजार खत्म कर दिया है, जबकि विपक्ष इस तथ्य के बावजूद उन्हें चुनौती नहीं दे रहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी यह नहीं माना है कि बाबरी मस्जिद है। राम की भूमि में बना मंदिर को तोड़कर बनाया गया था।
इतना ही नहीं, रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद विशेषज्ञों द्वारा उठाए गए सभी सवालों से विपक्ष ने ‘बुद्धिमानी’ से खुद को दूर कर लिया है। वह भी तब जब उसकी उम्मीद पूरी तरह से निराशाजनक हो गई थी। कि इस विवाद के निपटारे से ऐसे सभी विवादों का अंत हो जाएगा।
अब बहुसंख्यकवादी अल्पसंख्यकों के लिए कोई आवाज नहीं छोड़ने पर आमादा हैं, जबकि विपक्ष सभी देशवासियों के समानता, सम्मान के साथ जीने के अधिकार की रक्षा के लिए कठिन संघर्ष में उतरने का जोखिम उठाने के बजाय ‘सुविधाजनक और सुरक्षित’ रास्ते की प्रतीक्षा कर रहा है। और सुरक्षा. चमकती हुई ‘नरम-मुलायम’ हो गई है।
इतना नरम कि इस ‘तर्क’ से कि राम मंदिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बना है और राम सबके हैं, उसने उन सभी समस्याओं से आंखें मूंद ली हैं जो भाजपा द्वारा भगवान राम बनाने के कारण पैदा हुई हैं और बढ़ रही हैं। मंदिर निर्माण करा रहे ट्रस्ट की रीति-नीति को लेकर वह अपनी ‘आपत्तियों’ को किसी सीमा से आगे नहीं बढ़ने देते।
ऐसे में हम कैसे कह सकते हैं कि अगर इसके घटक दलों में एकता या गठबंधन हो गया तो इसका वसंत आ जाएगा? वह तभी आ सकता है, जब वह ईमानदारी से इस सवाल का सामना करने के लिए तैयार हो कि क्या उसे केवल तब तक सच्चाई का साथ देना चाहिए, जब तक उसकी जीत निश्चित न लगे। या तब भी जब उसकी हार की प्रबल संभावना हो और क्या आप लंबी लड़ाई और ऊंची कीमत की मांग करते हैं?
सवाल यह है कि अगर बहुसंख्यकवाद के खिलाफ लड़ाई लंबी चलती रही तो विपक्ष, जो पहले से ही ढुलमुल है, अपने सिद्धांतों की कीमत चुकाए बिना और उनके पक्ष में मजबूती से खड़े हुए बिना सिर्फ तात्कालिक मोर्चों की चिंता करके कैसे लड़ेगा?
वह यह कैसे समझेंगे कि सार्वजनिक शिक्षा के माध्यम से जनमानस को बदलकर बहुसंख्यकवाद से लड़ते हुए चुनाव हारने के बाद भी वह अपनी नैतिक चमक नहीं खोएंगे, लेकिन डर के कारण उन्होंने मुकाबला नरम बनाम कट्टर हिंदुत्व के रूप में रखा, फिर इस डर ने मार डाला उसे। न तो एकता और न ही गठबंधन अपनी चुनावी संभावनाओं और न ही अपनी नैतिक छवि को बचा पाएंगे।
काश विपक्ष को इस महत्वपूर्ण क्षण में यह याद होता कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद के इतिहास में, ऐसे संकटों के दौरान, उनके खिलाफ लगभग सभी अभियानों को शुरुआत में बहुत उपहास, आशंकाओं, विफलताओं और जोखिमों का सामना करना पड़ा है। लेकिन उन्होंने अपना दृढ़ संकल्प नहीं खोया इसलिए किसी भी संकट के लिए उन्हें रोकना संभव नहीं था।
इसका बड़ा उदाहरण हाल ही में राहुल गांधी के रोड शो के बाद वाराणसी का है, जहां बीजेपी कार्यकर्ताओं ने उनके भाषण स्थल को गंगा जल से धोया और अपने पाखंड और नफरत के साथ-साथ उस चिढ़ का भी प्रदर्शन किया जो पप्पू कहलाने से होती है। इसका जन्म राहुल द्वारा हर कोशिश को धता बताकर खुद को डूबा बना लेने से हुआ था। ऐसे में बार-बार कुचले जाने के बावजूद भी वह मौका मिलते ही खुद को कुचलने वालों को चिढ़ाना और उनका अपमान करना शुरू कर देती है।
अयोध्या में ऐसे संकल्प का एक और उदाहरण है। महात्मा की मृत्यु के बाद, आचार्य नरेंद्र देव ने विपक्ष बनाने के उद्देश्य से कांग्रेस छोड़ दी और राजनीतिक नैतिकता के उच्च मानक स्थापित करते हुए, उन्होंने इसके टिकट पर जीती विधानसभा सीट भी छोड़ दी। फिर उसी सीट से उपचुनाव लड़ा, इस उम्मीद के साथ कि मतदाता उन्हें दोबारा चुनकर उनके फैसले पर मुहर लगाएंगे।
लेकिन कांग्रेस उनके ख़िलाफ़ राजनीतिक के बजाय धार्मिक/सांप्रदायिक एजेंडे पर आगे बढ़ी। बाबा राघवदास को अपना उम्मीदवार बनाकर उन्होंने यह प्रचार शुरू कर दिया कि ज्ञान, गुण और मर्यादा में भले ही आचार्य उनसे मेल न खाते हों, लेकिन यदि अयोध्या किसी धर्मनिष्ठ बाबा की बजाय नास्तिक आचार्य को चुनेगी तो उसके धर्म का झंडा झुक जाएगा। इस प्रचार ने आचार्य की आशाओं को धूमिल करना शुरू कर दिया, इसलिए शुभचिंतकों ने उन्हें दिखावे के लिए ही सही, एक या दो मंदिरों में मत्था टेकने की सलाह देना शुरू कर दिया।
इस पर आचार्य का दृढ़ उत्तर था: मेरे जैसा नास्तिक चुनाव जीतने के लिए ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करके स्वयं और मतदाताओं दोनों को धोखा देगा। मैं ऐसा नहीं कर सकता। यदि मतदाताओं को मुझे चुनना है तो मुझे नास्तिक के रूप में ही चुनें, अन्यथा मुझे हरा दें।
इतिहास गवाह है, आचार्य उपचुनाव हार गए, लेकिन उनके द्वारा प्रवर्तित भारतीय समाजवाद ने बाद के दशकों में पीछे मुड़कर नहीं देखा। विपक्ष के पास अभी भी ऐसा दृढ़ संकल्प दिखाने का समय है। कम से कम राहुल गांधी इसे प्रदर्शित करते दिख रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से उनकी पार्टी उस वैचारिक लड़ाई को लड़ने के लिए उत्सुक नहीं दिख रही है जिसका वे आह्वान कर रहे हैं।
इसके नेता अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों से चिंतित होकर भाजपा की गोद में गिरने के बारे में सोच भी नहीं रहे हैं कि कल को, मां न कहे कि मेरे बेटे वक्त पड़ा तो काम न आए! विपक्ष को एक दिशा में और एक विचार से सोचना चाहिए, अन्यथा भाजपा का बहुसंख्यवाद उन्हें बार बार हराता रहेगा।